महत्वकांक्षा

Thursday, September 17, 2009

प्रतिभा

कहते हैं कि प्रतिभा किसी नुमाईश का मोहताज़ नही होती , वह तो अपनी खुशबू इस कदर बिखेरती है कि खुशबू लेने वालों का दिल बाग़-बाग़ हो उठता है जी हां, बस जरुरत है तो उसे उभारने की.. एक नया जोश, एक नई उमंग, एक नई प्रेरणा और एक नई दिशा देने की फ़िर तो वह एक बहती नदी की भांति चट्टानों को तोड़ती हुई , अपने लिए एक नया मार्ग बनाते हुए अंततः अपनी मंजिल सागर में जा कर मिल ही जाती है कहने का तात्पर्य यह है कि हम भी अपने अन्दर कि प्रतिभा को नया आयाम दे , एक नई दिशा दे जो हमारे जीवन के लक्ष्य कि प्राप्ति में हमारी मदद करे। बहुतायत लोग दूसरो की गुणवत्ता का आंकलन करने में ही ब्यस्त रहते है और उनको दूसरो की प्रतिभा ही अपनी ओर आकर्षित करती है उनकी अपनी प्रतिभा उनके लिए ' घर की मुर्गी दाल बराबर ' वाली लोकोक्ति बन जाती है और अंततः उनकी वो प्रतिभा धूमिल होंने लगती है अगर समय पर उसका वो ख्याल ना रखें तो कुछ समयापरांत वो नष्ट भी हो जाती है फ़िर पुनः उसे उभारना उसी तरह कठिन हो जाता है जिस तरह सालों बंद पड़े पिंजरे में तोत्ता उड़ना भूल जाता है भले ही आप उस पिंजरे का दरवाजा खोल दे किंतु कई वर्षों से बंद पड़ा वह तोत्ता फ़िर भी नही उड़ता ठीक उसी तोत्ते की भांति हम भी अगर अपनी प्रतिभा से अपना मुख मोड़ ले तो अवसर रुखी पंख के होंने के बाद भी हम आसमा की ऊंचाई की सफलता को नही छु पायेंगे , परिणामस्वरूप निराशा हताशा और असफलता का अन्धकार हमारे जीवन के खुशियों के दीपक को भुझा देगा

Sunday, September 6, 2009

स्वमूल्यांकन

ये भूमंडल बड़ा विचित्र है , यहाँ एक से बढ़ के एक और अनूठे जीव पाये जाते है | और उन सब जीवों में जो जीव अपने आप को सबसे ज्यादा बुद्धिमान और खरखाह समझता है तो वो है मनुष्य | निसंदेह आप इस बात से इनकार नही कर सकते भले ही आप इसे स्वीकार करे या ना करे | और वैसे हमने स्वीकार करना सीखा ही कब ? जी हाँ, हम तो सदा दूसरो को सीखाने में ही ब्यस्त रहे हैं तुम ऐसा करो, वैसे करो, ये करो, वो करो, हम जब छोटे थे तो ऐसा किया करते थे , वैसा किया करते थे और ना जाने क्या क्या ?? तरह तरह की बात बना कर और भांज कर अपने आप को ही हम सर्वोपरी दिखाना चाहते हैं। कभी अपने गीरेबान में झाकने का अपने को समय ही कहाँ मिला ? जी हां , हमने सदा दूसरो का मूल्यांकन करने में ही अपनी भलाई समझी पर अगर बातस्व की आई तो हमने अपने अपने कदम पीछे ले ली | हम तो ये कह कर निकल गए कि " अरे हम तो ऐसे हैं भइया ये हमारा अलग ही स्टाइल है " और यदि सचमुच हमने स्व का मूल्यांकन करना प्रारम्भ कर दिया होत्ता तब शायद हम मनुष्य नही कहलाते . वैसे भी हमारे पास गुणों के ऐसे भंडार पड़े हैं जो हमें दूसरो जीवों से अलग करते हैं उदाहरंस्वरूप - अपना स्वार्थ, अपना फ़ायदा, अपनी तरक्की, दूसरो से इर्ष्या , द्वेष , छल, कपट और ना जाने क्याक्या ... फ़िर हमें स्वमूल्यांकन , कर्तव्यपरायणता , परोपकारिता कि क्या दरकार ।।

Thursday, August 27, 2009

भविष्य

ये एक ऐसा शब्द है जिसके नाममात्र पर हम अपने वर्त्तमान का गला घोंट रहे हैं | एक झूठी आस, एक बुझती आशा का दीप, बस इसी के ख्याल में हम खोये हुए हैं | कल ऐसा होगा, वैसा होगा.. ये करेंगे..वो करेंगे.. का निरर्थक वाक्यांश हमारे वर्त्तमान के पंछी के पर काट रहा है | जब हमें सच में ये आभास हो जाएगा की जो आज है, अभी है, वही हमारा साथ .. निरंतर ...सदा सर्वदा देगा , तब शायद हम उस झूठे भविष्य की परिकल्पना करना छोड़ अपने वर्त्तमान को सावारेंगे !!!